जब से पतझड़ का नाग मेरे सूखे पत्तों को डसने लगा है
तब से शायद मुझे कुछ होने लगा है...
यह शीश मेरा, जो पहले नादानी में सदा ही ऊंचा रहता था,
अब ना जाने क्यों उसके सामने झुकने लगा है..
हाँ... शायद मुझे कुछ होने लगा है..
वो सुबह के सूरज की लाली
वो रात के चाँद की चांदनी
वो सागर के गहरे, नीले, विशाल रंग के बजाय
अब धरती का फीका भूरा रंग मुझको दिखने लगा है...
ज़रूर मुझे कुछ होने लगा है...
वो कागज़, जिसपर पहले सपनों के महल बना करते थे,
अब उसी कागज़ पे - कभी लाल, तो कभी पीली स्याही से
मेरे दिल का हाल बयान होने लगा है..
क्यूँ ऐसा मुझे होने लगा है?
लेकिन जब खेलने लगता हूँ इन्ही ख्यालों को गोद में लेकर,
तब समझ में आता है कि और कुछ नहीं,
बस ज़िन्दगी से मेरा सामना होने लगा है...
हाँ... बस यही तो मुझे होने लगा है.
2 comments:
not bad...
Great !!
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